Jungle RaJ: आज़ादी के बाद के दौर में, खासकर 1980 के दशक में, चंपारण की राजनीति में एक नया और खतरनाक चलन शुरू हुआ। कुछ नेता चुनाव जीतने के लिए ‘फुटानीबाजों’ (अपराधियों/डाकुओं) का सहारा लेने लगे। ओपन लेटर का डर: डाकू सिर्फ बूथ लूटने तक सीमित नहीं थे, बल्कि खुले खत (ओपन लेटर) बंटवाते थे, जिस पर ‘बिहार सरकार’ लिखा होता था। डाकुओं की हुकूमत: ये डाकू खुद को ही बिहार सरकार मानते थे। खत में यह हुक्म होता था कि किसे वोट देना है। बदले की आग: यदि उनका उम्मीदवार हार जाता, तो वे गांवों को निशाना बनाते, कत्लेआम करते और लोगों का अपहरण कर लेते थे।
Jungle RaJ: जंगलराज का उदय:
इस दौर में कानून-व्यवस्था लगभग खत्म हो गई थी। लोग दिन में भी घरों में दुबक जाते थे। (Jungle RaJ) 1985 में, प्रधानमंत्री राजीव गांधी से भीड़ ने “हम जीना चाहते हैं” कहकर भय से मुक्ति की गुहार लगाई थी। इसके बाद इस ‘मिनी चंबल’ को मुक्त कराने के लिए ‘ऑपरेशन ब्लैक पैंथर’ चलाया गया। इस ऑपरेशन के बाद कुछ डाकू मारे गए, कुछ नेपाल भाग गए, और कुछ ने राजनीति में आकर खादी पहन ली।
ज़ात-पात और बदले की आग (1970-80 का दशक)
70 के दशक के अंत और 80 के दशक की शुरुआत में, अमीरी-गरीबी, ऊंच-नीच और ज़ात-पात की गहरी खाई ने ज़मीन पर खून मिला दिया। (Jungle RaJ) माओवादियों का उदय: इस नाइंसाफी ने माओवादियों को दलितों और भूमिहीनों का मसीहा बनने का मौका दिया। (Jungle RaJ) ज़मींदारों का प्रतिरोध: दूसरी ओर, ऊंची जाति के ज़मींदारों ने इस बगावत को कुचलने की कोशिश की। नरसंहारों की श्रृंखला: इसका नतीजा भयानक सामूहिक हत्याकांडों की झड़ी के रूप में सामने आया, जैसे बारा, बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे, सेनारी, और मियांपुर।
बिहार के इतिहास में जातीय हिंसा का दौर एक दुखद और खूनी अध्याय है, जिसकी शुरुआत 1977 में बेलछी नरसंहार से हुई। इस घटना में कुर्मी ज़मींदारों और दलित खेतिहर मज़दूरों के बीच ज़मीनी विवाद ने जातीय नफरत का रूप ले लिया, जिसके तहत 11 दलित मज़दूरों को ज़िंदा जला दिया गया था। (Jungle RaJ) इस एक घटना ने राज्य में ‘जाति बनाम जाति’ की कहानी शुरू कर दी। एक दशक बाद, 1987 में दलेलचक-बघौरा में, माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (MCC) के हथियारबंद दस्ते ने 42 राजपूतों को निशाना बनाया और नरसंहार किया, जिसके बाद बदले की भावना खुली घोषणा बन गई।
जल्द ही, इन बदला लेने की गतिविधियों के जवाब में, ऊँची जातियों के ज़मींदारों ने अपनी निजी सेना, रणवीर सेना, का गठन किया। 1992 में बारा नरसंहार हुआ, जिसमें MCC के नक्सलियों ने पलटवार करते हुए 40 भूमिहारों का कत्ल कर दिया। इसके बाद रणवीर सेना ने भयानक जवाबी हमले किए। 1996 में बथानी टोला नरसंहार में, रणवीर सेना ने 21 लोगों को गोली मारकर बारा का बदला लिया। यह खूनी सिलसिला 1997 में लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार में अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचा, जब रणवीर सेना के हमलावरों ने 58 लोगों का कत्लेआम किया, जिसे ‘राष्ट्रीय शर्म’ कहा गया।
नब्बे के दशक के अंत में भी यह हिंसा जारी रही। 1999 में शंकर बिगहा में रणवीर सेना ने 22 दलितों की हत्या की। इसके ठीक बाद, 1999 में ही सेनारी नरसंहार में माओवादियों ने फिर जवाबी कार्रवाई की और 40 लोगों को एक साथ गला काट कर मार डाला। (Jungle RaJ) 2000 में मियांपुर नरसंहार इस खूनी जंग की एक और कड़ी बना, जहाँ रणवीर सेना ने माओवादियों के अंदाज़ में लोगों को घरों से खींच कर खड़ा किया और 35 लोगों का गला काटकर हत्या कर दी। यह पूरा दौर MCC/माओवादी संगठनों और रणवीर सेना के बीच बदले की अंतहीन हिंसा से चिह्नित रहा, जिसने बिहार की ज़मीन को खून से रंग दिया।
राजनीति और अपराध का नया सौदा
इन सब घटनाओं के बीच, नेताओं की उदासीनता ने अपराधियों के हौसले बढ़ा दिए। (Jungle RaJ) अपराधी अब सीधे नेताओं से सौदा करने लगे—पावर के बदले पावर। नेता चुनाव में अपराधियों की ताकत का इस्तेमाल करें, और बदले में सियासतदान उन्हें कानूनी शिकंजे से बचाएंगे। यह दौर (फुटानीबाजों का) शायद लंबा नहीं चला, लेकिन इसने अपराध का लोकतंत्रिकरण कर दिया, जिसने बिहार को राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम किया।










